Tuesday, June 25, 2019

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

पर लड़कियों को कैसे लड़के पसंद होते हैं? ऐसे तो नहीं. फ़िल्म की काल्पनिक दुनिया में भी ऐसा आदमी मेरा हीरो नहीं हो सकता.
जो मुझसे प्यार करे पर मेरे वजूद को नकार दे, मुझे हर व़क्त कंट्रोल करने की कोशिश करे, जिसे ना मेरे नज़रिए की समझ हो ना ही परवाह.
फिर मैं ना मिलूं तो किताब में लिखी हर घृणित हरकत करे. और फ़िल्म में बार-बार उन सभी हरकतों के लिए उसे नहीं, उसकी प्रेमिका को ज़िम्मेदार ठहराया जाए.
सारी परेशानियों की जड़ उसे बना दिया जाए. कबीर सिंह का ग़ुस्सा, शराब के प्रति दीवानापन, मरने की कोशिशें, इस सब की क़सूरवार वो प्रेमिका बना दी जाएउस प्रेमिका की ज़िंदगी, उसका अकेलापन, इसकी कोई चर्चा ना हो. और आख़िरी सीन में वो अचानक कबीर सिंह को हर बात के लिए माफ़ कर दे और वो हीरो बन जाए.
प्यार जैसे ख़ूबसूरत रिश्ते जिसमें हिंसा को किसी भी पैमाने से सही नहीं ठहराया जा सकता और जिसमें बराबरी और आत्म सम्मान की लड़ाई औरतें दशकों से लड़ रही हैं, उसके बारे में सोच कैसे खुलेगी?
आप ही से शुरुआत होगी. बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता के शोर के बीच मैं लिखूंगी, आप पढ़ेंगे और इस जश्न को बारीकी से समझकर नकारने की गुंजाइश बनी रहेगी.
जगदीश चतुर्वेदी कोई आम डॉक्टर नहीं हैं. वे हेल्थ केयर का बिज़नेस भी करते हैं.
बेंगलुरु में रहने वाले डॉक्टर चतुर्वेदी ने साल 2010 से 18 मेडिकल उपकरणों को तैयार करने में अहम भूमिका निभाई है.
उनकी भूमिका को-इन्वेंटर यानी सह-आविष्कारकर्ता की है. ये मशीनें भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था में मौजूद कमियों को दूर करने में मदद करने के इरादे से तैयार की गई हैं.
जगदीश नई पीढ़ी के पेशेवर लोगों की उस जमात से आते हैं, जो कामकाज में आने वाली परेशानियों को न केवल हल करने बल्कि उससे पैसा बनाने का हुनर भी जानते हैं.
साल 2008 में जब उनकी पढ़ाई पूरी होने को थी और डॉक्टरी की उनकी ट्रेनिंग जारी थी, तब जगदीश को पहली बार ऐसा ही एक आइडिया आया था.
आज वे एक ईएनटी स्पेशलिस्ट (आंख, नाक और गले का डॉक्टर) हैं. गांवों में मौजूद बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के बीच ही जगदीश ने अपना पहला हुनर सीखा.
अपनी किताब 'इन्वेंटिंग मेडिकल डिवाइसेज- अ पर्सपेक्टिव फ़्रॉम इंडिया' में डॉक्टर जगदीश ने याद किया है, "हम मरीज़ों की जांच के लिए लंबे शीशे और हेड लैंप का इस्तेमाल कर रहे थे जबकि मेरे अस्पताल में फ़्लैट स्क्रीन वाली टीवी और कहीं आधुनिक टेक्नॉलॉजी मौजूद थी."
इस परेशानी ने उन्हें एक आइडिया दिया, एक ऐसा ईएनटी इंडोस्कोप जिसमें डिजिटल कैमरा भी लगा हो.
लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि डॉक्टर होने के बनिस्बत एक उद्यमी बनना बहुत मुश्किल है.
डॉक्टर जगदीश चतुर्वेदी बताते हैं, "डॉक्टर होना अलग बात है पर मुझे किसी प्रोडक्ट को तैयार करने की ट्रेनिंग नहीं थी. मैंने सचमुच संघर्ष किया. और एक डिजाइन फ़र्म को इसका लाइसेंस दे दिया.
जगदीश को उनकी कोशिश में अस्पताल के ईएनटी विभाग के दूसरे सीनियर डॉक्टरों का भी पूरा साथ मिला. ये साथ इसलिए भी अहम था क्योंकि निवेशकों से मिलने के सिलसिले में वे अस्पताल की ट्रेनिंग मिस कर रहे थे.
डॉक्टर जगदीश की ग़ैरमौजूदगी में सहयोगी डॉक्टरों को उनके काम की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी. इसे लेकर साथी डॉक्टरों के बीच नाराज़गी थी और ये होना भी था.
जब डॉक्टर चतुर्वेदी के ईएनटी इंडोस्कोप पर काम चल रहा था तो उसी दौरान उन्होंने अमरीका के स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में बायोडिज़ाइन की पढ़ाई के लिए आवेदन दिया. इसके लिए उन्हें भारत सरकार से वजीफा मिला था.
डिजिटल कैमरा वाला ईएनटी इंडोस्कोप आगे चलकर साल 2015 में लॉन्च किया गया. अमरीका से भारत वापस आकर पर चतुर्वेदी ने एक कंपनी की शुरुआत की जिसका इरादा बाज़ार में ज़्यादा से मेडिकल उपकरण लाने का था. वे ऐसी मशीन बनाना चाहते थे जो साइनस के इन्फ़ेक्शन में मदद करे.
उनके एजेंडे में नाक से कुछ निकालने के काम आने वाला औज़ार तैयार करना भी था. इतना सब कुछ काफी नहीं था तो वो स्टैंड अप कॉमेडी के अपने शौक को पूरा करने के लिए महीने में ठीक-ठाक संख्या में शो भी कर लेते हैं.
पिछले साल उन्होंने एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म लॉन्च किया जो ख़ास तौर पर इनोवेशन इंडस्ट्री (नई मशीनें, नई टेक्नॉलॉजी तैयार करने वाला उद्योग) में काम करने वाले भारतीय डॉक्टरों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए तैयार किया गया था.
डॉक्टर चतुर्वेदी कहते हैं, जब आप सिस्टम का हिस्सा होते हैं तो उसमें टेक्नॉलॉजी के लिए जगह बनाना आसान होता है.
वो ये साफ़ करते हैं कि डॉक्टरी छोड़ने का उनका कोई इरादा नहीं है. "मैंने जो चीज़ें बनाई हैं, आप उन्हें कॉर्पोरेट चश्मे से नहीं देख सकते हैं. उन्हें एक डॉक्टर के नज़रिये से डॉक्टरों के लिए ही तैयार किया गया है."
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Monday, June 10, 2019

حادث دبي : مقتل 17 شخصا جراء اصطدام حافلة بإشارة مرورية

لقي، على الأقل، 17 شخصا من جنسيات مختلفة مصرعهم وأصيب آخرون إثر ارتطام حافلة بإشارة طريق مُعلقة في دبي.
وقالت الشرطة إن الحافلة التي تحمل لوحة أرقام مرورية من سلطنة عمان كانت تُقلّ 31 راكبا وقت وقوع الارتطام على طريق الشيخ محمد بن زايد.
وقال مسؤولون هنود إن ثمانية من مواطنيهم كانوا بين القتلى.
ويتلقى سائق الحافلة، وهو في الخمسينيات من عمره، علاجا من إصابات طفيفة تعرض لها، بينما تجري التحقيقات في وقوع الحادث.
وقال القائد العام لشرطة دبي، اللواء عبدالله خليفة المري: "أحيانا يؤدي خطأ أو إهمال طفيف أثناء قيادة المركبة إلى تبعات وخيمة".
ولم يصدر حتى الآن سبب رسمي أو تفاصيل عن الحادث. وقالت وسائل إعلام محلية إن الحافلة انحرفت لتتفادى لافتة تشير إلى الحد المسموح به في الارتفاع، والتي شقت سقف الحافلة.
وأصدرت السفارة الهندية في دبي قائمة بأسماء الهنود الثمانية الذين لقوا مصرعهم في الحادث، وقالت السفارة إنها تتواصل مع بعض أسر الضحايا. ويتلقى العديد من الهنود الآخرين علاجا من إصاباتهم.
ولم تتوفر حتى الآن تفاصيل أكثر عن بقية الضحايا.
وأعربت شركة النقل العمانية "مواصلات"، على تويتر، عن تعازيها، وأعلنت عن تعليق خدماتها ما بين مسقط ودبي حتى إشعار آخر.
ثلاثون عاماً مضت على اندلاع حرب "الماسة الزرقاء" بين السعودية وتايلاند، على جبهات الاقتصاد والدبلوماسية، وقتل فيها 18 شخصاً بينهم أربعة دبلوماسيين سعوديين أثناء محاولة فك خيوط هذه القضية التي لا تزال لغزاً كبيراً.
في عام 1989 وبينما كان البستاني التايلاندي كرنكراي تيشمونغ يعمل في قصر الأمير فيصل بن فهد بواباً، وقعت عيناه على كمية هائلة من المجوهرات التي كانت بحوزة الأمير. فخطط لسرقة بعضها ظناً منه أن الأمير لن يلحظ ذلك.
كان البستاني قد كسب ثقة عمال القصر، اقترب من حارس القصر الفلبيني أثناء إدخال الرقم السري لجهاز الإنذار وحفظه.
فبدأ بسرقة المجوهرات على دفعات، بينما كان الأمير وأسرته في إجازة خارج الرياض.
وعند عودتهم، اكتشفوا اختفاء المجوهرات، وعلموا أن البستاني هو من قام بذلك.
وتدهورت العلاقات بين البلدين بسرعة نظراً لمكانة الأمير فيصل، إذ كان والده الملك فهد الراحل يتولى عرش المملكة وقتها. وأصبحت القضية أشبه بمثلث برمودا، تبتلع كل من يقترب منها.
استطاع البستاني التسلل إلى غرف النوم عند غياب أصحابها، ليسرق المجوهرات على دفعات وصلت مجموع ما سرقه إلى 90 كيلو غراماً من القلادات والخواتم والأساور المصنوعة من الأحجار الكريمة والذهب والزمرد، وساعات مرصعة بالياقوت والألماس.
ومن بين المجوهرات الثمينة التي سرقها، كانت هناك ماسة زرقاء باهظة الثمن ونادرة تتجاوز قيمتها 20 مليون دولار.
أرسل البستاني المسروقات على دفعات إلى بلده قبل أن يأخذ الدفعة الأخيرة معه ويفر بها من السعودية.
لم يمضِ وقت طويل حتى علم الأمير وعائلته بفقدان بعض مجوهراتهم. فتواصلوا مع السلطات التايلاندية التي وعدت بحل القضية بأقصى سرعة وإعادة المجوهرات إلى الأمير.
وبالفعل ألقت السلطات القبض على البستاني واسترجعت منه المجوهرات وأعيدت للأمير وزُجَّ باللص في السجن لمدة خمس سنوات.
لكن الأمير اكتشف أن 20 في المئة فقط من المجوهرات التي أعيدت إليه كانت حقيقية، أما الباقي فمزيفة.
حاولت تايلاند على مدار عامين الحفاظ على علاقات حسنة مع السعودية، فاستمرت في البحث بالقضية، واُتهم مسؤول بارز باختلاس بعض المجوهرات، وتم استردادها منه وأعيدت للأمير عام 1991، إلا أن الكمية كانت صغيرة، ولم تكن الماسة الزرقاء من بين المجوهرات المستردة.
وباتت القضية أكثر تعقيداً، بعد أن تم تهديد وخطف زوجة وابن تاجر المجوهرات الذي اشترى المجوهرات المسروقة من البستاني، وعُثر عليهما لاحقاً مقتولين داخل سيارتهم.
وسُجلت جميع عمليات القتل التي كانت ذات صلة بقضية مجوهرات الأمير فيصل، ضد مجهول، بمن فيهم قتل رجل أعمال سعودي كان يجري تحقيقا خاصاً في القضية.
والدبلوماسيين السعوديين الأربعة، ورجّح خبراء أن يكون وراء عمليات القتل مسؤولون كبار في السلطة.
أثارت القضية سخط السعودية،فاتخذت إجراءات دبلوماسية ضد تايلاند منها خفض مستوى بعثتها الدبلوماسية إلى أقل مستوى، وفقد مئات الآلاف من العمال التايلانديين وظائفهم في السعودية، وعادوا إلى بلدهم وأوقف لفترة منح تأشيرات دخول للتايلانديين إلى المملكة.
وفي الوقت الذي كان السعوديون مازالوا يبحثون عن مجوهراتهم المفقودة، ظهرت زوجات كبار المسؤولين التايلانديينفي مناسبات رسمية وهن يرتدين بعض المجوهرات الجديدة التي كانت تشبه كثيراً مجوهرات الأمير فيصل.
كانت العاصمة التايلاندية أشبه بمصيدة موت لكل من ساهم في البحث عن الحقيقة، إذ قتل في ظروف غامضة كل من حاول الوصول إلى الحقيقة والكشف عن المستفيدين الحقيقيين من المجوهرات المسروقة.
وقال السعوديون إن ضباطاً تايلانديين كباراً لهم علاقة بالسرقة وعمليات القتل المتلاحقة للمحققين. وتضاربت الآراء حول المشتبه بهم في عمليات القتل، فقد أشارت برقية أمريكية عام 2010، إلى أن حزب الله اللبناني وراء عمليات القتل في تايلاند، إلا أن التحقيقات لم تحسم الأمر وبقي اللصوص والقتلة مجهولين.
و صرح محمد سعيد خوجة (دبلوماسي سعودي بارز كان يعيش في تايلاند) لصحيفة نيويورك تايمز في عام 1994: "الشرطة هنا أكبر من الحكومة نفسها، أشعر أنني كمسلم يجب أن أحارب الشياطين هنا".
وفي عام 2015، اتهمت السعودية خمسة من كبار الضباط التايلانديين بالتورط في عملية السرقة، ولكن لم تتم إدانتهم بسبب عدم كفاية الأدلة.
وأدرج اسم رئيس الشرطة التايلاندية سواسدى أمورنويوات، في قائمة المتهمين واتهم بحرف مجرى التحقيق وعرقلته من خلال الضغط على تاجر مجوهرات اعترف في وقت سابق بأن "الكثير من ضباط الشرطة الذين يرتدون الزي الرسمي هم في الواقع لصوص".
وعندما ظهرت زوجة سواسدي في إحدى المناسبات مرتدية عقداً من الألماس، بدا مألوفا جداً للأمير السعودي، ونفى أن يكون ذلك العقد هو نفسه العقد المفقود.
وقال سواسدي إن اللصوص الحقيقيين عبثوا بالصورة بهدف التضليل. وتسببت القضية في خسارة تايلاند لما يقارب 10 مليارات دولار سنوياً على مدار 20 عاماً بسبب منع المملكة للعمالة التايلندية وتراجع السياحة السعودية في تايلاند، ورغم كل ذلك مازال مصير الماسة الزرقاء مجهولاً حتى الآن.

تكفير عن الذنب

أُفرج عن السارق بعد قضاء حوالي ثلاث سنوات في السجن من أصل خمسة عقب صدور عفو عنه لحسن سلوكه في السجن.
وقال وقتها نادماً: "أنا واثق من أن جميع مصائبي سببها لعنة مجوهرات الأمير فيصل التي سرقتها، لذلك قررت أن أصبح راهباً بوذياً بقية حياتي علّني أكفِّرُ عن ذنبي".
وبعد إطلاق سراحه، بات يحمل اسماً جديداً معناه "صاحب العلم بالماس".